कविता संग्रह >> चुनी हुई कविताएँ चुनी हुई कविताएँअमृता प्रीतम
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अमृताजी की श्रेष्ठतम कविताओं का संकलन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित पंजाबी की प्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती अमृता प्रीतम देश के सर्वमान्य कवियों-साहित्यकारों की श्रेणी में प्रतिष्ठित
हैं। अमृता जी की कविता की अपनी एक अलग पहचान है, उसकी अपनी शक्ति है,
अपना सौन्दर्य है,अपना तेवर है। यह संकलन अमृताजी की श्रेष्ठतम कविताओं का
प्रतिनिधित्व करता है। कविताएँ स्वयं उन्होंने चुनी हैं।
युग का स्पन्दन,मानव-नियति के अर्थ की खोज, वर्तमान के प्रकाश के झरोखे और अन्धकार की अतल खाई नारी की अन्तरंग अनुभूतियों के अछूते प्रतिबिम्ब, दर्द के पर्वत में दरारें बनाता करूणा का निर्झर, अस्तित्व के खण्डहरों में सर्वहारा नारी की पुकार की गूँज-वारिसशाह के लिए,माता तृप्ता के सपनों में प्रकृति-सुन्दरी की पायल की झंकार पर अवतरित महाप्रभु के साँसों के शान्त स्वर-सब कुछ अद्भुत और मोहक। और,बहुत कुछ ऐसा भी जो बेचैन करता है, उद्वेलक है।
सहृदय पाठकों को समर्पित है संकलन का एक और नया संस्करण।
युग का स्पन्दन,मानव-नियति के अर्थ की खोज, वर्तमान के प्रकाश के झरोखे और अन्धकार की अतल खाई नारी की अन्तरंग अनुभूतियों के अछूते प्रतिबिम्ब, दर्द के पर्वत में दरारें बनाता करूणा का निर्झर, अस्तित्व के खण्डहरों में सर्वहारा नारी की पुकार की गूँज-वारिसशाह के लिए,माता तृप्ता के सपनों में प्रकृति-सुन्दरी की पायल की झंकार पर अवतरित महाप्रभु के साँसों के शान्त स्वर-सब कुछ अद्भुत और मोहक। और,बहुत कुछ ऐसा भी जो बेचैन करता है, उद्वेलक है।
सहृदय पाठकों को समर्पित है संकलन का एक और नया संस्करण।
प्रस्तुति
अमृता प्रीतम : चुनी हुई
कविताएँ’ के प्रकाशन का सर्वोपरि सन्दर्भ है भारतीय ज्ञानपीठ का
‘साहित्य पुरस्कार’ जो भारतीय भाषाओं में से प्रतिवर्ष विधिवत् चयन की गयी सर्वश्रेष्ठ कृति के रचनाकार को एक विशेष समारोह में समर्पित होता है। श्रीमती अमृता प्रीतम वर्ष 1981 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुई हैं, जो वर्ष-क्रम में यद्यपि सोलहवाँ है, किन्तु पंजाबी साहित्य को पहली बार प्राप्त हो रहा है अर्थात ज्ञानपीठ
पुरस्कार का चयन करने वाली प्रवर परिषद् ने भारतीय साहित्य की
संविधान-सम्मत पन्द्रह भाषाओं में सन् 1965 से 1947 के बीच प्रकाशित
कृतियों में से श्रीमती अमृता प्रीतम की काव्य कृति को सर्वश्रेष्ठ
निर्धारित किया है। जिस कृति का नाम इस सन्दर्भ में लिया गया है वह है
‘काग़ज़ ते कैनवस’ (काग़ज़ और कैनवस), किन्तु सही
स्थिति यह है कि इस पुरस्कार द्वारा अमृताजी के सारे साहित्यिक कृतित्व को
सम्मानित किया जा रहा है। अमृता प्रीतम मूल रूप से कवि हैं, यद्यपि
उन्होंने उपन्यास, कहानी, ललित गद्य, आत्म-जीवनी, डायरी, साहित्यिक
मूल्यांकन-परक निबन्ध आदि विविध विधाओं में अपने कृतित्व से सृजन के
मानदण्डों की रक्षा की है, उन्हें ऊँचा उठाया है।
पुरस्कार समर्पण-समारोह के अवसर की दृष्टि से ज्ञानपीठ ने, अपनी परम्परा के अनुरूप, श्रीमती अमृता प्रीतम से अनुरोध किया कि वह अब तक प्रकाशित अपने श्रेष्ठ कृतित्व में से श्रेष्ठतम को चुन दें ताकि उनका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया जा सके और अन्य भारतीय भाषाओं को अनुवाद के लिए ऐसा सहज माध्यम प्रस्तुत किया जा सके जो आपके कृतित्व की पहचान को देशव्यापी बना सके। अनुवाद तो आखिर अनुवाद ही है, मूल के निकट पहुँचने का वह प्रयत्न अवश्य है। फिर भी पाठक रोमांचित होता है, यह देखकर कि किस प्रकार हमारे भारतीय काव्य की मूल आत्मा इकतारे की झंकृति-सी समान अनुभूति देती है, और किस प्रकार युग की संगति-विसंगति के चित्र हमारी देशव्यापी चेतना के उद्वेलन को प्रतिबिम्बित करते हैं।
पुरस्कार विजेताओं की मूल कविताओं को हिन्दी अनुवाद के माध्यम से हिन्दी और हिन्दी-इतर सहस्रों पाठकों तक सम्प्रेषित करने का यह माध्यम ज्ञानपीठ ने शंकर कुरुप की ‘ओटक्कुष़ल’ (मलयालम) अर्थात् ‘बाँसुरी’, उमाशंकर जोशी की ‘निशीथ’ (गुजराती), फ़िराक़ गोरखपुरी की ‘बज़्मे ज़िन्दगी रंगे शायरी’ (उर्दू), विष्णु दे की ‘स्मृति सत्ता भविष्यत्’ (बांग्ला’, दत्तात्रय रामचन्द्र बेन्द्रे की ‘नाकुतन्ति’ (कन्नड़) अर्थात् ‘चार तार’, के प्रकाशन द्वारा अपनाया।
‘अमृता प्रीतम: चुनी हुई कविताएँ’ के इस संकलन की भाँति, एक अन्य संकलन समारोह के अवसर पर अंग्रेजी में प्रकाशित किया है-‘Amrita Pritam: Selected Poems’ जिसका अनुवाद-सम्पादन (श्री खुशवन्तसिंहजी ने किया है। इस संकलन के लिए भी कविताओं का चुनाव स्वयं अमृताजी ने किया है।
भारतीय ज्ञानपीठ के साहित्य-पुरस्कार की सम्मान राशि सन् 1965 से 1980 तक एक लाख रुपये रही। सन् 1981 से इसे डेढ़ लाख (1,50,000/-) रु. कर दिया गया है। पुरस्कार का मूल्य राशि की दृष्टि से जितना भी महत्त्वपूर्ण रहा हो, या हो, इसका स्थायी मूल्य इस तथ्य में है कि पुरस्कार विजेता अपनी भाषा और क्षेत्र की सीमाओं को लाँघकर अखिल भारतीय स्तर पर ‘भारतीय साहित्यकार’ के रूप में प्रतिष्ठित होता है। पुरस्कृत कृतिकार और उसके कृतित्व के साथ सारे देश का भावनात्मक तादात्म्य स्थापित हो जाता है। इस तादात्म्य और गौरव-भावना के मूल में यह तथ्य भी विशेष रूप से क्रियाशील होता है कि ज्ञानपीठ पुरस्कारों का निर्णय निष्पक्ष और साहित्यक मूल्यों के आधार पर होता है। पुरस्कार निर्णय की इस प्रक्रिया में प्रवर परिषद् की सहायता सैकड़ों साहित्य-समीक्षक भाषा-परामर्श-समितियों के माध्यम से और पाठक-पाठिकाएँ प्रस्ताव-पत्रों के माध्यम से करते हैं।
अमृता प्रीतम पंजाबी की पहली साहित्यकार हैं, और महिला-विजेताओं में दूसरी। पहली महिला जिन्हें 1976 के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, श्रीमती आशापूर्णा देवी हैं जिनके बांग्ला उपन्यास ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ का चुनाव उस वर्ष श्रेष्ठ कृति के रूप में हुआ था। इन दोनों से पहले जिस यशस्वी और तपस्विनी साहित्य-साधिका का नाम ज्ञानपीठ गौरव से लेती है, वह हैं श्रीमती महादेवी वर्मा जिन्होंने सन् 1974 का पुरस्कार मराठी लेखक विष्णुसखाराम खांडेकर को अपने हाथों समर्पित करके पुरस्कार की प्रतिष्ठा में योगदान दिया है।
भारतीय साहित्य-जगत् में अमृता प्रीतम की छवि एक ऐसी छवि है जिसने जीवन जीने में और कविता रचने में किसी विभाजक सीमा-रेखा को बीच में नहीं आने दिया है। वह इतनी पारदर्शी हैं कि उनसे साक्षात्कार करना स्वयं अपने को नये सिरे से पहचानना है, और जीवन तथा जगत् के प्राण-स्पन्दन से, मानव-हृदय की धड़कन से साक्षात्कार करना है। क्या कारण है कि अमृता प्रीतम का जन्म गुजराँवाला (पंजाब) की जिस धरती पर 31 अगस्त 1919 को हुआ, वहाँ का एक अपरिचित व्यक्ति ज्ञानपीठ पुरस्कार का समाचार पढ़कर दिल्ली आता है और एक दुपट्टे के छोर में बँधी सौगात अमृताजी के हाथ में थमाता हुआ रोमांजित होकर कहता है: अमृताजी यह उस ज़मीन की मिट्टी लाया हूँ जहाँ आप पैदा हुईं...आगे वह बोल ही नहीं सका:
‘‘और, मेरे वजूद को एक बार छुआ
धीरे से-
ऐसे, जैसे कोई वतन की मिट्टी को छूता है’’...
नारी की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संरचना के प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुभव को असाधारण परिस्थिति में तनावों, संघर्षों तथा उद्दाम प्रेम के सहज आवेगों की आँच को जिसने भोगा है और अभिव्यक्ति को कुन्दन बनाया है, उसके कृतित्व का मूल्यांकन धमनियों के रक्त और हृदय के स्पन्दन से ही हो सकता है।
अमृता प्रीतम का कृतित्व इस बात का प्रमाण है कि पंजाबी कविता की अपनी एक अलग पहचान है, उसकी अपनी शक्ति है, अपना सौन्दर्य है, अपना तेवर है। अमृता प्रीतम उसका श्रेष्ठ प्रतिनिधित्व करती हैं-और यह सकंलन अमृताजी की श्रेष्ठतम कविताओं, का प्रतिनिधित्व करता है। युग का स्पन्दन, मानव-नियति के अर्थ की खोज, वर्तमान के प्रकाश के झरोखे और अन्धकार की अतल खाई, नारी की अन्तरंग अनुभूतियों के अछूते प्रतिबिम्ब, दर्द के पर्वत में दरारें बनाता करुणा का निर्झर, अस्तित्व के खँडहरों में सर्वहारा नारी की पुकार की गूँज-वारिसशाह के लिए, माता तृप्ता के सपनों में प्रकृति सुन्दरी की पायल की झंकार पर अवतरित महाप्रभु के साँसों के शान्त, स्वर सब कुछ अद्भुत और मोहक। और, बहुत कुछ ऐसा भी जो बेचैन करता है, उद्वेलक है।
श्रीमती अमृता प्रीतम की कविताओं का यह संग्रह पाठकों को निश्चित ही अभिभूत करेगा। जिन्होंने अमृता को पढ़ा है, सुना है और जो मानते हैं कि उनका काव्य-जगत् से घनिष्ठ परिचय है, वे भी स्वीकारेंगे कि जिस स्तर की जो सामग्री ‘अमृता-प्रीतम: चुनी हुई कविताएँ’ में संकलित है, और अनुवाद को जिस सुघराई एवं प्रामाणिकता से साधा गया है, वह अत्यन्त दुर्लभ है।
11 दिसम्बर
पुरस्कार समर्पण-समारोह के अवसर की दृष्टि से ज्ञानपीठ ने, अपनी परम्परा के अनुरूप, श्रीमती अमृता प्रीतम से अनुरोध किया कि वह अब तक प्रकाशित अपने श्रेष्ठ कृतित्व में से श्रेष्ठतम को चुन दें ताकि उनका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया जा सके और अन्य भारतीय भाषाओं को अनुवाद के लिए ऐसा सहज माध्यम प्रस्तुत किया जा सके जो आपके कृतित्व की पहचान को देशव्यापी बना सके। अनुवाद तो आखिर अनुवाद ही है, मूल के निकट पहुँचने का वह प्रयत्न अवश्य है। फिर भी पाठक रोमांचित होता है, यह देखकर कि किस प्रकार हमारे भारतीय काव्य की मूल आत्मा इकतारे की झंकृति-सी समान अनुभूति देती है, और किस प्रकार युग की संगति-विसंगति के चित्र हमारी देशव्यापी चेतना के उद्वेलन को प्रतिबिम्बित करते हैं।
पुरस्कार विजेताओं की मूल कविताओं को हिन्दी अनुवाद के माध्यम से हिन्दी और हिन्दी-इतर सहस्रों पाठकों तक सम्प्रेषित करने का यह माध्यम ज्ञानपीठ ने शंकर कुरुप की ‘ओटक्कुष़ल’ (मलयालम) अर्थात् ‘बाँसुरी’, उमाशंकर जोशी की ‘निशीथ’ (गुजराती), फ़िराक़ गोरखपुरी की ‘बज़्मे ज़िन्दगी रंगे शायरी’ (उर्दू), विष्णु दे की ‘स्मृति सत्ता भविष्यत्’ (बांग्ला’, दत्तात्रय रामचन्द्र बेन्द्रे की ‘नाकुतन्ति’ (कन्नड़) अर्थात् ‘चार तार’, के प्रकाशन द्वारा अपनाया।
‘अमृता प्रीतम: चुनी हुई कविताएँ’ के इस संकलन की भाँति, एक अन्य संकलन समारोह के अवसर पर अंग्रेजी में प्रकाशित किया है-‘Amrita Pritam: Selected Poems’ जिसका अनुवाद-सम्पादन (श्री खुशवन्तसिंहजी ने किया है। इस संकलन के लिए भी कविताओं का चुनाव स्वयं अमृताजी ने किया है।
भारतीय ज्ञानपीठ के साहित्य-पुरस्कार की सम्मान राशि सन् 1965 से 1980 तक एक लाख रुपये रही। सन् 1981 से इसे डेढ़ लाख (1,50,000/-) रु. कर दिया गया है। पुरस्कार का मूल्य राशि की दृष्टि से जितना भी महत्त्वपूर्ण रहा हो, या हो, इसका स्थायी मूल्य इस तथ्य में है कि पुरस्कार विजेता अपनी भाषा और क्षेत्र की सीमाओं को लाँघकर अखिल भारतीय स्तर पर ‘भारतीय साहित्यकार’ के रूप में प्रतिष्ठित होता है। पुरस्कृत कृतिकार और उसके कृतित्व के साथ सारे देश का भावनात्मक तादात्म्य स्थापित हो जाता है। इस तादात्म्य और गौरव-भावना के मूल में यह तथ्य भी विशेष रूप से क्रियाशील होता है कि ज्ञानपीठ पुरस्कारों का निर्णय निष्पक्ष और साहित्यक मूल्यों के आधार पर होता है। पुरस्कार निर्णय की इस प्रक्रिया में प्रवर परिषद् की सहायता सैकड़ों साहित्य-समीक्षक भाषा-परामर्श-समितियों के माध्यम से और पाठक-पाठिकाएँ प्रस्ताव-पत्रों के माध्यम से करते हैं।
अमृता प्रीतम पंजाबी की पहली साहित्यकार हैं, और महिला-विजेताओं में दूसरी। पहली महिला जिन्हें 1976 के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, श्रीमती आशापूर्णा देवी हैं जिनके बांग्ला उपन्यास ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ का चुनाव उस वर्ष श्रेष्ठ कृति के रूप में हुआ था। इन दोनों से पहले जिस यशस्वी और तपस्विनी साहित्य-साधिका का नाम ज्ञानपीठ गौरव से लेती है, वह हैं श्रीमती महादेवी वर्मा जिन्होंने सन् 1974 का पुरस्कार मराठी लेखक विष्णुसखाराम खांडेकर को अपने हाथों समर्पित करके पुरस्कार की प्रतिष्ठा में योगदान दिया है।
भारतीय साहित्य-जगत् में अमृता प्रीतम की छवि एक ऐसी छवि है जिसने जीवन जीने में और कविता रचने में किसी विभाजक सीमा-रेखा को बीच में नहीं आने दिया है। वह इतनी पारदर्शी हैं कि उनसे साक्षात्कार करना स्वयं अपने को नये सिरे से पहचानना है, और जीवन तथा जगत् के प्राण-स्पन्दन से, मानव-हृदय की धड़कन से साक्षात्कार करना है। क्या कारण है कि अमृता प्रीतम का जन्म गुजराँवाला (पंजाब) की जिस धरती पर 31 अगस्त 1919 को हुआ, वहाँ का एक अपरिचित व्यक्ति ज्ञानपीठ पुरस्कार का समाचार पढ़कर दिल्ली आता है और एक दुपट्टे के छोर में बँधी सौगात अमृताजी के हाथ में थमाता हुआ रोमांजित होकर कहता है: अमृताजी यह उस ज़मीन की मिट्टी लाया हूँ जहाँ आप पैदा हुईं...आगे वह बोल ही नहीं सका:
‘‘और, मेरे वजूद को एक बार छुआ
धीरे से-
ऐसे, जैसे कोई वतन की मिट्टी को छूता है’’...
नारी की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संरचना के प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुभव को असाधारण परिस्थिति में तनावों, संघर्षों तथा उद्दाम प्रेम के सहज आवेगों की आँच को जिसने भोगा है और अभिव्यक्ति को कुन्दन बनाया है, उसके कृतित्व का मूल्यांकन धमनियों के रक्त और हृदय के स्पन्दन से ही हो सकता है।
अमृता प्रीतम का कृतित्व इस बात का प्रमाण है कि पंजाबी कविता की अपनी एक अलग पहचान है, उसकी अपनी शक्ति है, अपना सौन्दर्य है, अपना तेवर है। अमृता प्रीतम उसका श्रेष्ठ प्रतिनिधित्व करती हैं-और यह सकंलन अमृताजी की श्रेष्ठतम कविताओं, का प्रतिनिधित्व करता है। युग का स्पन्दन, मानव-नियति के अर्थ की खोज, वर्तमान के प्रकाश के झरोखे और अन्धकार की अतल खाई, नारी की अन्तरंग अनुभूतियों के अछूते प्रतिबिम्ब, दर्द के पर्वत में दरारें बनाता करुणा का निर्झर, अस्तित्व के खँडहरों में सर्वहारा नारी की पुकार की गूँज-वारिसशाह के लिए, माता तृप्ता के सपनों में प्रकृति सुन्दरी की पायल की झंकार पर अवतरित महाप्रभु के साँसों के शान्त, स्वर सब कुछ अद्भुत और मोहक। और, बहुत कुछ ऐसा भी जो बेचैन करता है, उद्वेलक है।
श्रीमती अमृता प्रीतम की कविताओं का यह संग्रह पाठकों को निश्चित ही अभिभूत करेगा। जिन्होंने अमृता को पढ़ा है, सुना है और जो मानते हैं कि उनका काव्य-जगत् से घनिष्ठ परिचय है, वे भी स्वीकारेंगे कि जिस स्तर की जो सामग्री ‘अमृता-प्रीतम: चुनी हुई कविताएँ’ में संकलित है, और अनुवाद को जिस सुघराई एवं प्रामाणिकता से साधा गया है, वह अत्यन्त दुर्लभ है।
11 दिसम्बर
-लक्ष्मीचन्द्र जैन
निदेशक, भारतीय ज्ञानपीठ
निदेशक, भारतीय ज्ञानपीठ
धूप का टुकड़ा
मुझे वह समय याद है-
जब धूप का एक टुकड़ा
सूरज की उँगली थाम कर
अँधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में कहीं खो गया...
सोचती हूँ-सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस खोये बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया
तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है
एक नन्हा-सा गर्म साँस
न हाथ से बहलता है,
न हाछ को छोड़ता है
अँधेरे का कोई पार नहीं
मेले के शोर में भी
एक खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे धूप का एक टुकड़ा....
आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बन्द की
और अँधेरे की सीढ़ियाँ उतर गया...
आसमान की भवों पर
जानें क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन कोल कर
उसने चाँद का कुर्ता उतार दिया...
मैं दिल के एक कोने में बैठी हूँ,
तुम्हारी याद इस तरह आयी-
जैसे गीली लकड़ी में से
गाढ़ा और कडुवा धुआँ उठता है...
साथ हज़ारों ख़्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख़ आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियाँ अभी बुझायीं हैं...
वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक़्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये...
तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और ज़िन्दगी की हँडिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया...
नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का सायरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता है
सपने जैसे कई भट्ठियाँ हैं
हर भट्ठी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है
तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे हथेली पर कोई
एक वक़्त की रोज़ी रखता है...
जो खाली हँडिया भरती है
राँध-पका कर अन्न परस कर
वह हाँडी उलटा रखता है
बची आँच पर हाथ सेंकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और ख़ुदा का शुक्र मनाता है
रात-मिल का सायरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुँआ इस उम्मीद पर निकलता है
जो कमाना है वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है...
आसमान जब भी रात का
और रोशनी का रिश्ता जोड़ते...
सितारे मुबारकबाद देते..
क्यों सोचती हूँ मैं : अगर कहीं....
मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती
जिस रात के होठों ने कभी
सपने का माथा चूम लिया
ख़्यालों के पैरों में उस रात से
इक पायल-सी बज रही....
जब इक बिजली आसमान में
बादलों के वर्क़ उलटती
मेरी कहानी भटकती-
आदि ढूँढती, अन्त ढूँढती...
तेरे दिल की एक खिड़की
जब कहीं खड़क जाती
सोचती हूँ, मेरे सवाल की
यह कैसी जुर्रत है !
हथेलियों पर इश्क़ की
मेहँदी का कोई दावा नहीं
हिज्र1 का एक रंग है
और खुसबू है तेरे जिक़्र की
मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती
---------------------
1.विरह
रात-लड़की ने दावत दी
सितारों के चावल फटक कर
यह देग़ किसने चढ़ा दी ?
चाँद की सुराही कौन लाया
चाँदनी की शराब पी कर
आकाश की आँखें गहरा गयीं
धरती का दिल धड़क रहा है
सुना है आज टहनियों के घर
फूल मेहमान हुए हैं
आगे क्या लिखा है
अब इन तकदीरों से
कौन पूछने जाएगा
उम्र के काग़ज़ पर-
तेरे इश्क़ ने अंगूठा लगाया,
हिसाब कौन चुकाएगा !
किस्मत ने इक नग़मा लिखा है
कहते हैं कोई आज रात
वहीं नग़मा गाएगा
कल्प-वृक्ष की छाँव में बैठकर
कामधेनु के छलके दूध से
किसने आज तक दोहनी भरी ?
हवा की आहें कौन सुने !
चलूँ, आज मुझे
तक़दीर बुलाने आयी है...
बरसों की राहें चीर कर
तेरी आवाज़ आयी है
सस्सी के पैरों को जैसे
किसी ने मरहम लगाई है...
आज किसी के सिर से
जैसे हुमा गुज़र गया
चाँद ने रात के बालों में
जैसे फूल टाँक दिया
नींद के होठों से जैसे
सपने की महक आती है
पहली किरण रात की
जब माँग में सिन्दूर भरती है...
हर एक हर्फ़ के बदन
तेरी महक आती रही
मुहब्बत के पहले गीत की
पहली सतर गाती रही
हसरत के धागे जोड़ कर
हम ओढ़नी बुनते रहे
बिरहा की हिचकी में भी हम
शहनाई सुनते रहे...
चैत ने करवट ली
रंगों के मेले के लिए
फूलों ने रेशम बटोरा-
तू नहीं आया
दोपहरें लम्बी हो गयीं,
दाख़ों को लाली छू गयी
दराँती ने गेहूँ की बालियाँ चूम लीं-
तू नहीं आया
बादलों की दुनिया छा गयी,
धरती ने हाथों को बढ़ाया
आसमान की रहमत पी ली-
तू नहीं आया
पेड़ों ने जादू कर दिया,
जंगल से आयी हवा के
होठों में शहद भर गया-
तू नहीं आया
ऋतु ने एक टोना कर दिया,
और चाँद ने आ कर
रात के माथे पर झूमर लटका दिया-
तू नहीं आया
आज तारों ने फिर कहा,
उम्र के महल में अब भी
हुस्न के दीये से जल रहे-
तू नहीं आया
किरणों का झुरमुट कह रहा,
रातों की गहरी नींद से
उजाला अब भी जागता-
तू नहीं आया
आ साजन, आज बातें कर लें...
तेरे दिल के बाग़ों में
हरी चाह की पत्ती-जैसी
जो बात जब भी उगी,
तूने वही बात तोड़ ली
हर इक नाजुक बात छुपा ली,
हर एक पत्ती सूखने डाल दी
मिट्टी के इस चूल्हे में से
हम कोई चिनगारी ढूँढ़ लेंगे
एक-दो फूँफें मार लेंगे
बुझती लकड़ी फिर से बाल लेंगे
मिट्टी के इस चूल्हे में
इश्क़ की आँच बोल उठेगी
मेरे जिस्म की हँडिया में
दिल का पानी खौल उठेगा
आ साजन, आज पोटली खोल लें
हरी चाय की पत्ती की तरह
वहीं तोड़-गँवाई बातें
वही सँभाल सुखाई बातें
इस पानी में डाल कर देख,
इसका रंग बदल कर देख
गर्म घूँट इक तुम भी पीना,
गर्म घूँट इक मैं भी पी लूँ
उम्र का ग्रीष्म हमने बिता दिया,
उम्र का शिशिर नहीं बीतता
आ साजन, आज बातें कर लें...
जब धूप का एक टुकड़ा
सूरज की उँगली थाम कर
अँधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में कहीं खो गया...
सोचती हूँ-सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस खोये बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया
तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है
एक नन्हा-सा गर्म साँस
न हाथ से बहलता है,
न हाछ को छोड़ता है
अँधेरे का कोई पार नहीं
मेले के शोर में भी
एक खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे धूप का एक टुकड़ा....
याद
आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बन्द की
और अँधेरे की सीढ़ियाँ उतर गया...
आसमान की भवों पर
जानें क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन कोल कर
उसने चाँद का कुर्ता उतार दिया...
मैं दिल के एक कोने में बैठी हूँ,
तुम्हारी याद इस तरह आयी-
जैसे गीली लकड़ी में से
गाढ़ा और कडुवा धुआँ उठता है...
साथ हज़ारों ख़्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख़ आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियाँ अभी बुझायीं हैं...
वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक़्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये...
तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और ज़िन्दगी की हँडिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया...
रोज़ी
नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का सायरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता है
सपने जैसे कई भट्ठियाँ हैं
हर भट्ठी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है
तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे हथेली पर कोई
एक वक़्त की रोज़ी रखता है...
जो खाली हँडिया भरती है
राँध-पका कर अन्न परस कर
वह हाँडी उलटा रखता है
बची आँच पर हाथ सेंकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और ख़ुदा का शुक्र मनाता है
रात-मिल का सायरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुँआ इस उम्मीद पर निकलता है
जो कमाना है वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है...
मैं
आसमान जब भी रात का
और रोशनी का रिश्ता जोड़ते...
सितारे मुबारकबाद देते..
क्यों सोचती हूँ मैं : अगर कहीं....
मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती
जिस रात के होठों ने कभी
सपने का माथा चूम लिया
ख़्यालों के पैरों में उस रात से
इक पायल-सी बज रही....
जब इक बिजली आसमान में
बादलों के वर्क़ उलटती
मेरी कहानी भटकती-
आदि ढूँढती, अन्त ढूँढती...
तेरे दिल की एक खिड़की
जब कहीं खड़क जाती
सोचती हूँ, मेरे सवाल की
यह कैसी जुर्रत है !
हथेलियों पर इश्क़ की
मेहँदी का कोई दावा नहीं
हिज्र1 का एक रंग है
और खुसबू है तेरे जिक़्र की
मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती
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1.विरह
दावत
रात-लड़की ने दावत दी
सितारों के चावल फटक कर
यह देग़ किसने चढ़ा दी ?
चाँद की सुराही कौन लाया
चाँदनी की शराब पी कर
आकाश की आँखें गहरा गयीं
धरती का दिल धड़क रहा है
सुना है आज टहनियों के घर
फूल मेहमान हुए हैं
आगे क्या लिखा है
अब इन तकदीरों से
कौन पूछने जाएगा
उम्र के काग़ज़ पर-
तेरे इश्क़ ने अंगूठा लगाया,
हिसाब कौन चुकाएगा !
किस्मत ने इक नग़मा लिखा है
कहते हैं कोई आज रात
वहीं नग़मा गाएगा
कल्प-वृक्ष की छाँव में बैठकर
कामधेनु के छलके दूध से
किसने आज तक दोहनी भरी ?
हवा की आहें कौन सुने !
चलूँ, आज मुझे
तक़दीर बुलाने आयी है...
आवाज़
बरसों की राहें चीर कर
तेरी आवाज़ आयी है
सस्सी के पैरों को जैसे
किसी ने मरहम लगाई है...
आज किसी के सिर से
जैसे हुमा गुज़र गया
चाँद ने रात के बालों में
जैसे फूल टाँक दिया
नींद के होठों से जैसे
सपने की महक आती है
पहली किरण रात की
जब माँग में सिन्दूर भरती है...
हर एक हर्फ़ के बदन
तेरी महक आती रही
मुहब्बत के पहले गीत की
पहली सतर गाती रही
हसरत के धागे जोड़ कर
हम ओढ़नी बुनते रहे
बिरहा की हिचकी में भी हम
शहनाई सुनते रहे...
तू नहीं आया
चैत ने करवट ली
रंगों के मेले के लिए
फूलों ने रेशम बटोरा-
तू नहीं आया
दोपहरें लम्बी हो गयीं,
दाख़ों को लाली छू गयी
दराँती ने गेहूँ की बालियाँ चूम लीं-
तू नहीं आया
बादलों की दुनिया छा गयी,
धरती ने हाथों को बढ़ाया
आसमान की रहमत पी ली-
तू नहीं आया
पेड़ों ने जादू कर दिया,
जंगल से आयी हवा के
होठों में शहद भर गया-
तू नहीं आया
ऋतु ने एक टोना कर दिया,
और चाँद ने आ कर
रात के माथे पर झूमर लटका दिया-
तू नहीं आया
आज तारों ने फिर कहा,
उम्र के महल में अब भी
हुस्न के दीये से जल रहे-
तू नहीं आया
किरणों का झुरमुट कह रहा,
रातों की गहरी नींद से
उजाला अब भी जागता-
तू नहीं आया
बातें
आ साजन, आज बातें कर लें...
तेरे दिल के बाग़ों में
हरी चाह की पत्ती-जैसी
जो बात जब भी उगी,
तूने वही बात तोड़ ली
हर इक नाजुक बात छुपा ली,
हर एक पत्ती सूखने डाल दी
मिट्टी के इस चूल्हे में से
हम कोई चिनगारी ढूँढ़ लेंगे
एक-दो फूँफें मार लेंगे
बुझती लकड़ी फिर से बाल लेंगे
मिट्टी के इस चूल्हे में
इश्क़ की आँच बोल उठेगी
मेरे जिस्म की हँडिया में
दिल का पानी खौल उठेगा
आ साजन, आज पोटली खोल लें
हरी चाय की पत्ती की तरह
वहीं तोड़-गँवाई बातें
वही सँभाल सुखाई बातें
इस पानी में डाल कर देख,
इसका रंग बदल कर देख
गर्म घूँट इक तुम भी पीना,
गर्म घूँट इक मैं भी पी लूँ
उम्र का ग्रीष्म हमने बिता दिया,
उम्र का शिशिर नहीं बीतता
आ साजन, आज बातें कर लें...
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